धूप के साए में शब्-ए-इंतज़ार गुज़री;
दिन के अंधेरों नें डराया कभी कभी.
वैसे तो ज़िन्दगी ख़ुशगवार ही रही;
बेजान कहकहों नें सताया कभी कभी
छोटी छोटी बातों में खुशियाँ बड़ी बड़ी;
ढूंढता रहा, ढूंढ पाया कभी कभी.
बड़े लोगों की बातों में आया बड़ा मज़ा;
वज़न मगर बात में आया कभी कभी.
उसका कभी जो ज़िक्र चला अश्क़ बह चले;
रूबरू हुए तो हंसाया कभी कभी.
माना के बहुत दूर से आती है वो सदा;
उस शै को बहुत पास है पाया कभी कभी.
दीवानगी का शौक़ तो पाला नहीं गया;
मजनूँ नें मगर हंस के बुलाया कभी कभी.
मंदिरों और मस्जिदों में आँख ना खुली;
मैक़दों में होश पर आया कभी कभी.
मोहब्बतों में उसकी मेरा ज़िक्र नहीं है;
बुरी आदतों में मुझको गिनाया कभी कभी.
Originally published as one of my Facebook Notes on my personal profile on Facebook on July 1, 2012.