दर्द का बयाबां है, ख़ुशी की एक गली भी है;
कह्कहों के तूफ़ान में, अश्कों की नमी भी है;
मुद्दतों के फासलों में, यादों के झरोखे से;
सालती है मुझको जो, वो आपकी कमी सी है.
मुन्तज़िर क्यों रात है, क्यों चाँद आश्ना सा है;
धडकनों का शोर क्यूँ, और सांस क्यों थमी सी है.
सहमी सहमी ज़िन्दगी पे मौत का ये सर्द खौफ़;
हर अंजान शै का डर, ये फ़ितरत आदमी की है.
ज़िन्दगी की बेरुख़ी थी, कड़वे तजुर्बात थे;
आज फिर क़दमों तले सख्त कुछ ज़मीं सी है.
संगदिली, मतलबपरस्ती, बेवफाई की चोट से;
कांपती, सिसकती है जो, बेबस ज़िन्दगी सी है.
गर्मजोशी से मिलाया हाथ, मुस्कुराये भी;
दिल की पिघली बर्फ़ लेकिन आज फिर जमी सी है.
लफ़्ज़ों को एक क़तार में खड़ा किया और कह लिया;
हमनें किया है आज जो लगता है शायरी सी है.
मुद्दतों हमनें कहा, और मुद्दतों उसने सुना;
गुफ़्तगू के नाम पे हमनें तो बंदगी की है.
Originally published as one of Facebook Notes on my personal profile on Facebook on July 13, 2012.