मैंने तेरे वजूद को कुछ नाम ना दिया;
कुछ नें तुझे ख़ुर्शीद कहा, कुछ नें माहताब।
पढ़ना ना आया ख़ल्क़ को एक लफ्ज़ भी कभी;
कहने को मेरी ज़िन्दगी है इक खुली क़िताब।
जज़्बात में बहकर भी कभी कुछ तो बोलिये;
आवाज़ में जुम्बिश तो हो, रुख़ पे हो गर नक़ाब।
दौर-ए-इंतज़ार कि लज़्ज़त ना पूछिए;
अपनी सी लगी हमको हर ख़ातून बाहिजाब।
Originally published as one of my Facebook Notes on my personal profile on Facebook on November 26, 2013.